पारसन्स का प्रतिमान विकल्प का सिद्धान्त
प्रतिमान विकल्प ( Pattern Variables )
नियम कानूनों में विकल्पता ही प्रतिमान विकल्प है।
यह सिद्धांत
पारसन्स ने सामाजिक व्यवस्था
के सम्बन्ध में दिया।
सामाजिक व्यवस्था में सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई भूमिका होती
है।
सामाजिक व्यवस्था में सबसे छोटी इकाई क्रिया होती
है।
टालकॉट पारसन्स ने प्रतिमान विकल्प की अवधारणा सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में
प्रतिपादित किया। इनके अनुसार सामाजिक व्यवस्था का सबसे महत्त्वपूर्ण
तत्त्व भूमिका है। सामाजिक व्यवस्था का निर्माण इकाइयों से होता है जब
इकाइयाँ अपनी भूमिका निभाएंगी तभी सामाजिक व्यवस्था बनी रहेगी।
भूमिका के प्रकार -
पार्सन्स के अनुसार भूमिका दो प्रकार की होती है -
1 -अपेक्षित भूमिका या भूमिका अपेक्षा (Role Expectation)-
इसका तात्पर्य समाज द्वारा अपेक्षित की गई भूमिका से है।
2 -वास्तविक भूमिका या भूमिका निर्वाह (Role Performance)-
इसका तात्पर्य इकाई द्वारा सम्पादित की गई भूमिका से है।
जब इन दोनों भूमिकाओं में सामंजस्य बना रहता है तो सामाजिक व्यवस्था
सदैव संतुलित बनी रहती है। किन्तु यदि इन दोनों में अंतर आ जाता है तो
सामाजिक व्यवस्था विघटित होने का खतरा रहता है। इसलिए कर्ता इन दोनों
भूमिकाओं में सामंजस्य बनाये रखने के लिए सदैव तनाव महसूस करता है। यह
तनाव कभी -कभी दुविधा की स्थिति उत्पन्न कर देता है।और
उस दुविधा की स्थिति में कर्ता के समक्ष भूमिका सम्पादित करने के लिए
दो प्रकार के प्रतिमान उपस्थित होते हैं और दोनों में से कर्ता किसी भी
एक विकल्प को चुनने के लिए स्वतन्त्र होता है। यदि कर्ता अपनी
परिस्थितियों ,अभिप्रेरणा और मानक मूल्यों के आधार पर सही विकल्प का
चयन करके अपनी अपेक्षित भूमिका और वास्तविक भूमिका में
सामंजस्य बैठा लेगा तो व्यवस्था सदैव संगठित और संतुलित बनी
रहेगी। यदि गलत विकल्प का चयन कर लेगा तो व्यवस्था असंतुलित हो
जाएगी।
(दोनों में सामंजस्य बैठाने में कर्ता को हमेशा दुविधा होगी।)
पार्सन्स के अनुसार प्रतिमान के पाँच विकल्प हैं -
ये पाँचों भावनाओं के आधार पर तथा लक्ष्य के आधार पर उपस्थित होते
हैं। इनमे से एक न एक प्रत्येक कर्ता के सम्मुख किसी भी व्यवहार को
सम्पादित करने में अवश्य विद्यमान होता है। यदि कर्ता उस समय की
परिस्थितियों में विद्यमान अभिप्रेरणा और मानक मूल्यों के आधार पर सही
विकल्प का चयन करके भूमिका अपेक्षा और भूमिका निर्वाह के बीच के अंतर को कम
कर लेता है और सामंजस्य बनाये रखता है तो सामाजिक व्यवस्था संगठित और
संतुलित बनी रहती है परन्तु यदि गलत विकल्प का चयन करके भूमिका
सम्पादित करता है तो भूमिका अपेक्षा और भूमिका निर्वाह के बीच का अंतर
बढ़ जाता है और सामाजिक व्यवस्था असंतुलित या विघटित हो जाती है। संतुलन
बनाये रखने के लिए प्रतिमानों का सही विकल्प चुनना आवश्यक है। प्रतिमान
विकल्पों के पाँच प्रकार निम्नलिखित हैं -
1- भावनात्मकता बनाम भावनात्मक तटस्थता -(Affectivity Vs Affective Neutrality)-
इस प्रकार की दुविधाएँ अक्सर माँ -बेटे, डॉक्टर -मरीज के सम्बन्ध में दिखाई
देती हैं।
जैसे- कभी कभी माँ बच्चे को पढ़ाती है तो उसके उचित मार्गदर्शन या समाजीकरण
के लिए उसके समक्ष इस प्रकार की दुविधा विद्यमान हो जाती है।
2 -विशिष्टीकरण बनाम सार्वभौमिकीकरण -(Particularism Vs Universalism )-
कभी कभी कर्ता के सामने एक विकल्प विशिष्ट नियमों के आधार पर जबकि दूसरा
सार्वभौमिक नियमों के आधार पर उपस्थित होता है।
उदाहरणस्वरूप - जज के सामने यदि उनका ही बेटा अपराधी के रूप में कटघरे में
खड़ा हो तो वहाँ ऐसी दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
3 -प्रसरण बनाम विशिष्टता (Diffusion Vs Specificity )-
इस प्रकार की दुविधा सामाजिक व्यवस्था में कर्ता के समक्ष सामाजिक संबंधों
के सन्दर्भ में दिखाई देती है क्योंकि दो प्रकार के सम्बन्ध होते हैं एक
प्रसरण पर आधारित होता है और दूसरा विशिष्टता पर आधारित होता है।प्रसरण पर
आधारित सम्बन्ध व्यक्तित्त्व के सभी पक्षों से सम्बंधित होते हैं जैसे
दुकानदार -ग्राहक ,परीक्षार्थियों के आपस में सम्बन्ध ,शिक्षक -छात्र के
सम्बन्ध। उदाहरणस्वरूप कभी कभी ये दोनों सम्बन्ध एक साथ विद्यमान हो
जाते हैं। जैसे- मित्र को परीक्षा भवन में नक़ल कराने के सम्बन्ध में।
4 -प्रदत्त बनाम अर्जित (Ascription Vs Quality )-
कभी कभी कर्ता के समक्ष सामाजिक व्यवस्था में दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो
जाती है कि वह प्रदत्त मानक मूल्यों अर्थात जन्म जाति त्वचा के रंग इत्यादि
के आधार पर मानक मूल्यों का चयन करे या अर्जित योग्यता तथा गुणों के आधार
पर मानक मूल्यों का चयन करे।
उदाहरणस्वरूप -भारतीय समाज में नौकरशाही में इस प्रकार की दुविधा
उत्पन्न हो जाती है कि भूमिका का निर्वाह जाति के आधार पर करे या योग्यता
के आधार पर।
5 -स्वअभिमुख बनाम समूह अभिमुख (Self Orientation Vs Collective Orientation)-
कभी कभी कर्ता के समक्ष सामाजिक व्यवस्था में दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो
जाती है कि वह अपने हितों की पूर्ति करे या समूह के हित की पूर्ति करे।
उदाहरणस्वरूप -राजनीतिक नेताओं के समक्ष ऐसी दुविधा उत्पन्न होती है।
निष्कर्ष -
निष्कर्षतः पारसन्स के प्रतिमान विकल्प केवल हमारे भूमिका अपेक्षा
और भूमिका निर्वाह की प्रकृति को ही नहीं दर्शाते हैं बल्कि सामाजिक
व्यवस्था को बनाये रखने के लिए हमें प्रेरित भी करते हैं और दुविधाओं
का निराकरण करने में एक मार्गदर्शक के रूप में भी कार्य करते हैं।अतः ये
प्रतिमान विकल्प अंततः सामाजिक व्यवस्था को ही बनाये रखने में महत्त्वपूर्ण
योगदान देते हैं।
Excellent
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