मार्क्स का-अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत
मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत -(Theory of Surplus Value)
विक्रय मूल्य - लागत =
अतिरिक्त मूल्य
(लाभ)
किसी वस्तु के उत्पादन की अवधि में किये गए श्रम के
वास्तविक मूल्य से कम मूल्य श्रमिकों को देकर पूंजीपति बचाये हुए
मूल्य को हड़प जाते हैं। यही बचाया हुआ मूल्य अतिरिक्त मूल्य(surplus
value )कहलाता है। पूंजीपति इस अतिरिक्त मूल्य को अपने पास बचाकर इसे पुनः निवेश कर
देते हैं। यह प्रक्रिया ही पूंजीवादी व्यवस्था के परिचालन का मुख्य आधार
है।
स्वयं में वर्ग और स्वयं के लिए वर्ग-
मार्क्स के अनुसार समाज में आर्थिक व्यवस्था के आधार पर दो वर्ग होते हैं -
१-वस्तुनिष्ठ वर्ग (Objective Class )-
इस वर्ग को ही स्वयं में वर्ग (Class in Itself )कहा जाता है इसके
अंतर्गत पूंजीपति वर्ग आता है।यह वर्ग लोगों का एक ऐसा समूह होता है
जो सदैव अपने हित के लिए प्रयत्नशील रहता है। इसका अपने वर्ग
के अन्य साथियों से कोई लेना देना नहीं होता है अर्थात इसमें वर्ग
चेतना नहीं पायी जाती है।
२-व्यक्तिनिष्ठ वर्ग (Subjective Class )-
इस वर्ग को स्वयं के लिए वर्ग(Class for Itself ) कहा जाता है। इसके
अंतर्गत सर्वहारा वर्ग आता है। यह वर्ग लोगों का एक ऐसा
समूह होता है जो सदैव अपने हित के साथ-साथ अपने वर्ग के अन्य
साथियों के हितों के लिए जागरूक रहते हैं अर्थात इसमें वर्ग चेतना
पायी जाती है।स्वयं के लिए वर्ग ही वास्तविक वर्ग (Real Class )है जो समाज
में परिवर्तन लाने के लिए क्रांति करता है।
आदिम समाज ,प्राचीन समाज ,सामंती समाज में यातायात तथा
संचार के साधन नहीं थे इसलिए यहाँ स्वयं के लिए वर्ग नहीं पाया जाता था।
स्वयं के लिए वर्ग मात्र पूंजीवादी समाज में पाया जाता है क्योंकि यातायात
तथा संचार के साधनों की वजह से हर जगह के श्रमिक एक जगह एकत्रित होते हैं
जिससे उनमे वर्ग चेतना का उदय होता है।
स्वयं में वर्ग + वर्ग चेतना = स्वयं के लिए वर्ग
"Class for Itself
ही वह वर्ग है जो क्रांति करता है और सामाजिक परिवर्तन लाता है " - कार्ल मार्क्स
श्रम के मूल्य सिद्धांत (Labor Theory of Value )- कार्ल मार्क्स
"वर्ग संघर्ष ही इतिहास का चालक है"- कार्ल
मार्क्स
मार्क्स की आलोचना -
निम्नलिखित प्रमुख समाजशास्त्रियों ने मार्क्स के सिद्धांतों की आलोचना
की -
मैक्स वेबर -समाज में परिवर्तन के
लिए अर्थव्यवस्था एक प्रमुख कारण
हो सकती है परन्तु एक मात्र कारण नहीं क्योंकि कभी-कभी समाज में
अन्य कारकों की वजह से भी परिवर्तन आता है तथा धर्म भी
परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
रॉल्फ डेहरेंडॉर्फ -१-संघर्ष का मूल
कारण असमान वितरण है न कि अर्थव्यवस्था क्योंकि शक्ति सत्ता में निहित
होती है इसलिए संघर्ष का मूल कारण सत्ता है।
२-संघर्ष की मात्रा धीरे धीरे नहीं बढ़ती बल्कि सत्ता पर बैठे लोगों
द्वारा निर्धारित होती है।
प्रकार्यवादी
विचारकों के अनुसार -समाज में सिर्फ संघर्ष नहीं होता बल्कि सहयोग भी होता है। यदि
समाज में सिर्फ संघर्ष ही पाया जायेगा तो समाज कभी स्थिर ही नहीं
हो पायेगा।
निष्कर्ष -
मार्क्स के विचारों में कुछ त्रुटियां अवश्य हो सकती
हैं परन्तु इन्हे पूर्णतः नाकारा नहीं जा सकता है। उनके विचार आज भी
प्रासंगिक हैं।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubt please let me know