पारसंस का सामाजिक क्रिया का सिद्धान्त

सामाजिक क्रिया का सिद्धांत 

T. पारसंस वेबर से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। इन्होने वेबर से प्रभावित होकर "समाजशास्त्र को सामाजिक क्रिया का अध्ययन करने वाला विषय कहा।"

पारसंस के सिद्धांत को समझने से पहले हम कुछ महत्त्वपूर्ण समाजशास्त्रीय शब्दों का अर्थ समझ लेते हैं -

व्यवस्था -

इकाइयों का क्रमबद्ध संकलन ही व्यवस्था है। इकाइयां चार प्रकार की होती हैं - 
1 - सामाजिक इकाई 
2 -आर्थिक इकाई 
3 -राजनीतिक इकाई 
4 -सांस्कृतिक इकाई 

संरचना -

विभिन्न इकाइयों के मध्य पाया जाने वाला स्थिर एवं प्रतिमानित(निश्चित नियम कानूनों को ही प्रतिमानित कहा जाता है) सम्बन्ध ही संरचना है। 

प्रकार्य -

जब विभिन्न इकाइयों के बीच सहयोगात्मक सम्बन्ध पाया जाता है तो उसे प्रकार्य (Function ) कहा जाता है। 


सामाजिक क्रिया का सिद्धांत -

पारसंस के अनुसार समाजशास्त्र मानव व्यवहार का अध्ययन करता है और मानव व्यवहार दो प्रकार का होता है- 
1 - जैविकीय मानव व्यवहार - यह मानव व्यवहार अचेतन अवस्था में किया जाता है। 
2 -सामाजिक मानव व्यवहार - यह मानव व्यवहार चेतन अवस्था में किया जाता है। इसे ही पारसंस ने  सामाजिक क्रिया कहा है।

सामाजिक क्रिया के अंग-

पारसंस के अनुसार सामाजिक क्रिया के चार अंग होते हैं -

1 -कर्ता (Actor )-किसी भी सामाजिक क्रिया के लिए कर्ता का होना आवश्यक है। कर्ता के बिना कोई भी सामाजिक क्रिया नहीं हो सकती।  

2 -लक्ष्य (Goal )- कर्ता सदैव किसी न किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही क्रिया करता है। 

3 -साधन (Means )- लक्ष्य की पूर्ति के लिए साधनों का प्रयोग आवश्यक है। 

4 -परिस्थितियाँ (Conditions ) - प्रत्येक क्रिया को करने के लिए परिस्थितियाँ होना भी आवश्यक है।
इन चारों अंगों के माध्यम से जो भी मानव व्यवहार सम्पादित होता है उसे ही सामाजिक क्रिया कहा जाता है। 
पारसंस कहते हैं की कोई भी सामाजिक क्रिया शून्य में रहकर सम्पादित नहीं की जा सकती है। प्रत्येक सामाजिक क्रिया के पीछे एक प्रेरणा का होना आवश्यक है।ये प्रेरणा किसी व्यक्ति विशेष या सामाजिक संस्था से नहीं बल्कि मानकमूल्यों से प्राप्त होती है। इसलिए सामाजिक क्रिया के पीछे प्रेरणा और मानकमूल्यों का होना अति आवश्यक है। 

सामाजिक क्रिया के प्रकार- 

पारसंस के अनुसार सामाजिक क्रिया तीन प्रकार की होती है-

१-नैमित्त क्रिया २-सूचक क्रिया ३-नैतिक क्रिया 

पारसंस के अनुसार सामाजिक क्रिया तीन प्रकार की होती है और इन तीनों सामाजिक क्रियाओं के पीछे तीन प्रकार की प्रेरणा काम करती है और इन तीनों प्रेरणाओं के पीछे तीन प्रकार के मानकमूल्य कार्य करते हैं।
तीन प्रकार की सामाजिक क्रियाऐं,प्रेरणाएँ और मानकमूल्य निम्नलिखित हैं -

1 -नैमित्त क्रिया - संज्ञानात्मक प्रेरणा - संज्ञानात्मक मूल्य-

लक्ष्य को ध्यान में रखकर जो मानव व्यवहार सम्पादित किये जाते हैं वो नैमित्त क्रिया के अंतर्गत आते हैं। नैमित्त क्रिया के पीछे संज्ञानात्मक अभिप्रेरणा कार्य करती है। संज्ञानात्मक अभिप्रेरणा वो है जो मात्र क्रिया या लक्ष्य से जुड़ी सूचनाएं कर्ता को देती है जिसके पीछे संज्ञानात्मक मूल्य कार्य करता है क्योंकि प्रत्येक अभिप्रेरणा मानकमूल्यों से ही प्राप्त होती है। संज्ञानात्मक मानकमूल्यों के माध्यम से व्यक्ति जिस व्यवहार को सम्पादित करने जा रहा है उसका वस्तुनिष्ठता से मूल्यांकन करता है और इसी संज्ञानात्मक मानकमूल्य और अभिप्रेरणा (Cognative Value and Motivation ) से प्रेरित होकर व्यक्ति लक्ष्य को ध्यान में रखकर जो भी मानव व्यवहार सम्पादित करता है उसे नैमित्त क्रिया कहते हैं।जैसे -IAS की परीक्षा पास करने के लिए कड़ी से कड़ी मेहनत करना। 

2 -सूचक क्रिया - भावात्मक अभिप्रेरणा - प्रशंसनात्मक मूल्य - 

भावनाओं को ध्यान में रखकर जो भी मानव व्यवहार सम्पादित किये जाते हैं वह सभी सूचक क्रिया के अंतर्गत आते हैं।इनके पीछे भावात्मक अभिप्रेरणा कार्य करती है। ये वो अभिप्रेरणा होती है जिससे कर्त्ता का भावनात्मक लगाव होता है इनके पीछे प्रशंसनात्मक मूल्य कार्य करते हैं। प्रशंसनात्मक मूल्य वे मूल्य होते हैं जिनकी समाज प्रशंसा करता है। जैसे -माता -पुत्री का बिछड़ते समय रोना। 

3 - नैतिक क्रिया - मूल्याँकनात्मक अभिप्रेरणा - नैतिक मूल्य -

इस प्रकार  के मानव व्यवहार के पीछे मूल्याँकनात्मक अभिप्रेरणा कार्य करती है। ये वह अभिप्रेरणा है जिसके माध्यम से कर्त्ता यह मूल्यांकन करता है की उसकी क्रिया से समाज या उसे कितना लाभ होगा और यह अभिप्रेरणा समाज में विद्यमान नैतिक मानक मूल्यों से प्राप्त होती है जिसका सम्बन्ध नैतिकता से हैऔर उन्ही नैतिक मानकमूल्यों के द्वारा व्यक्ति अपने व्यवहार का मूल्याङ्कन  करता है और सामाजिक क्रिया को सम्पादित करता है तो वह नैतिक क्रिया के अंतर्गत आते हैं। 

निष्कर्ष -

निष्कर्षतः जब यही तीनों क्रियाएँ संस्थात्मक रूप धारण कर लेती हैं तो वह एक व्यवस्था को निर्मित करती हैं। यही पारसंस का सामाजिक क्रिया का सिद्धान्त है। 


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