पारसन्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त

पारसन्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त 




इस सिद्धांत को पार्सन्स ने संघर्षवादियों की आलोचना या प्रतिक्रिया के फलस्वरूप प्रतिपादित किया। 

संघर्षवादी पार्सन्स की आलोचना करते हुए कहते हैं कि पारसन्स के सामाजिक व्यवस्था में सदैव संगठन एवं संतुलन विद्यमान रहता है इसलिए उनके सामाजिक व्यवस्था में कोई भी इकाई परिवर्तन को स्वीकार नहीं करेगी, क्योंकि परिवर्तन के लिए विरोधी तत्त्वों का होना अनिवार्य है अतः पारसन्स की सामाजिक व्यवस्था एक रूढ़िवादी व्यवस्था है जो यथास्थिति में विश्वास रखती है। 

पारसन्स इसी आलोचना की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं और कहते हैं की किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन के लिए विरोधी तत्त्वों का होना आवश्यक नहीं है बल्कि परिवर्तन दो कारणों की वजह से आता है -

1 -आन्तरिक कारण 

2 -बाह्य कारण 

इन्ही आतंरिक तथा बाह्य कारणों की वजह से व्यवस्था थोड़ी देर के लिए असंतुलित हो जाती है जिसके फलस्वरूप उसमे कुछ नई विशेषताएँ जुड़ जाती हैं। क्योंकि व्यवस्था के अंदर ही कुछ ऐसी विशेषताएँ विद्यमान होती हैं जो उसे पुनः संतुलन की अवस्था में ला देती हैं और फिर उन्ही नए तत्त्वों से समाज के लोग अन्तः क्रिया करते हैं तो अन्तः क्रिया का संस्थात्मक रूप ही नई व्यवस्था के रूप में तब्दील हो जाता है। अतः सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन कर देती हैं  आतंरिक तथा बाह्य कारकों की वजह से आता है। 

आतंरिक कारक-

इसके अंतर्गत -जन्म ,मृत्यु ,आवास -प्रवास ,सांस्कृतिक कारक जैसे -शिक्षा,धर्म इत्यादि आते हैं। 

बाह्य कारक-

 इसके अंतर्गत औद्योगीकरण ,नगरीकरण जैसे आर्थिक एवं राजनैतिक कारक आते हैं।

 इन्ही कारकों की वजह से सामाजिक व्यवस्था असंतुलित होती है जिससे उसमे कुछ नए तत्त्व जुड़ जाते हैं जिससे समाज के लोग धीरे-धीरे अन्तः क्रिया करने लगते हैं और यह अन्तः क्रिया जब बहुत दिनों तक नियम कानूनों के अनुरूप चलती है तो संस्थात्मक रूप धारण कर लेती है और एक नई व्यवस्था के रूप में तब्दील हो जाती है। 
चूँकि उस व्यवस्था के अंतर्गत कुछ ऐसे तत्त्व अन्तर्निहित होते हैं जैसे -पुलिस बल ,न्यायालय इत्यादि( नियंत्रण इकाइयां ) जिसके कारण यह नई व्यवस्था पुनः असंतुलन अवस्था से सन्तुलनावस्था की ओर आ जाती है।
इसे ही पारसन्स का सन्तुलनावस्था सम्बन्धी विचार या गतिमान साम्यावस्था सम्बन्धी विचार कहा जाता है। 

इसी आधार पर पारसन्स पाँच प्रकार के समाज की बात करते हैं -

1-आदिम समाज (जंगली समाज )

2-निर्माणशील समाज (सिंधु घाटी /सुमेरियन सभ्यता )

3-ऐतिहासिक समाज (भारत ,चीन )

4-आधुनिक कृषि प्रणाली वाला समाज (इजराइल /कनाडा )

5-आधुनिक समाज (यूरोपीय समाज )


यही पारसन्स का सामाजिक परिवर्तन का सिद्धान्त है। 

आलोचना -

C राइट मिल्स पारसन्स के सामाजिक व्यवस्था सिद्धांत की आलोचना करते हुए कहते हैं- कि इनका सिद्धांत बृहद सिद्धांत के अंतर्गत आता है जो कि अमूर्त अनुभववाद पर आधारित है। अतः मिल्स के अनुसार पार्सन्स ने कहीं भी प्रत्यक्षवाद अर्थात तथ्य एवं आंकड़ों का प्रयोग नहीं किया है इसलिए उनके सिद्धांत वैज्ञानिक सिद्धांत की श्रेणी में नहीं आते हैं। 

राल्फ डेहरेंडार्फ  जैसे समाजशास्त्री पार्सन्स को यूटोपियन (कल्पनावादी समाजशास्त्री )मानते हैं,क्योंकि वो एक ऐसे समाज की बात करते हैं जहाँ संघर्ष नहीं है जबकि संघर्ष समाज की एक अनिवार्य दशा है। 

W. F. ह्वाइट  पार्सन्स की आलोचना करते हुए कहते हैं कि - पार्सन्स की सामाजिक व्यवस्था का सिद्धांत यथास्थिति में विश्वास करता है इसलिए यह एक रूढ़िवादी व्यवस्था मानी जाती है। 













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