मर्टन का सन्दर्भ-समूह सिद्धांत (Reference group)
मर्टन का सन्दर्भ-समूह सिद्धांत
सन्दर्भ-समूह क्या है ?
सामान्यतः एक ऐसे समूह को सन्दर्भ समूह की संज्ञा दी जाती है जिसके साथ एक
व्यक्ति अपना समीकरण बिठाता है अथवा समीकरण बिठाने की आकांक्षा रखता है तथा
उसी के अनुरूप अपने मूल्यों,विश्वासों,मनोवृत्तियों को ढालने का प्रयास
करता है तथा उसी के अनुरूप अपने व्यवहार को निर्देशित करता है।
अर्थात
"सन्दर्भ समूह वह समूह है जिसके आधार पर हर व्यक्ति के लिए अपनी
उपलब्धियों,व्यवहार भूमिका, आकाँक्षाओं आदि का मूल्यांकन करना संभव होता
है।"
सन्दर्भ-समूह की अवधारणा-
सन्दर्भ-समूह की अवधारणा को हरबर्ट हाइमैन ने 1942 में अपनी पुस्तक
The Psychology of status में प्रतिपादित किया था।
यह अवधारणा सदस्यता -समूह की अवधारणा के ठीक विपरीत अर्थों को प्रदर्शित
करती है। सदस्यता समूह की भांति सन्दर्भ समूह का सदस्य होना अनिवार्य नहीं
है ,किन्तु व्यक्ति ऐसे समूह की सदस्यता प्राप्ति के लिए आकांक्षी अवश्य हो
सकता है।
एक सन्दर्भ समूह किसी व्यक्ति का सदस्यता -समूह भी हो सकता है।
सन्दर्भ समूह की ही तरह सन्दर्भ व्यक्ति भी हो सकता है।
गाँधी,टैगोर,शेक्सपीयर जैसे व्यक्ति अनेकों के लिए सन्दर्भ व्यक्ति रहे
हैं।
सन्दर्भ-समूह की परिभाषा -
T.D. केम्पर के अनुसार -
"एक सन्दर्भ समूह एक ऐसा समूह या संग्रह अथवा व्यक्ति होता है जिसे
कर्त्ता व्यवहारों के वैकल्पिक समूहों में से अपने व्यवहार हेतु चुनते
हुए या किसी समस्या के सम्बन्ध में निर्णय लेते हुए ध्यान में रखता
है।"ऐसे समूह व्यक्ति की व्यवहार,आचरण,मनोवृत्ति के निर्धारण में अहम्
भूमिका निभाते हैं।
ये समूह व्यक्ति के व्यवहार के लिए एक मानक अथवा आदर्श समूह का कार्य
करते हैं जिनकी सदस्यता के लिए वह लालायित रहता है।
R.K. मर्टन के अनुसार -
"संदर्भ समूह सिद्धान्त का उद्देश्य मूल्यांकन और आलोचना की उन
प्रक्रियाओं के निर्धारिकों को व्यवस्थित करना है जिनके द्वारा
व्यक्ति अन्य व्यक्तियों या समूहों के मूल्यों या मानदण्डों को
तुलनात्मक संदर्भ के रूप में स्वीकार या ग्रहण करता है।"
R.K. मर्टन
तथा रोस्सी ने सन्दर्भ समूह का विस्तृत अध्ययन किया। अमेरिकी
समाजशास्त्री R.K. मर्टन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक
'Social Theory and Social Structure'(1949) में इस सिद्धांत
को विस्तार से समझाया तथा सिद्ध किया है।
सापेक्षिक वंचना की अवधारणा -
सापेक्षिक वंचना अर्थात हीन भावना सन्दर्भ-समूह की
अनिवार्य स्थिति है। इसे तुलनात्मक वंचना भी कहा जाता है।
सापेक्षिक वंचना पर मर्टन की समझ सन्दर्भ समूह और सन्दर्भ समूह के आचरण के
विवेचन से जुडी हुई है। इसके बिना सन्दर्भ समूह की समझ पूरी नहीं हो
सकती।
इस अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग सेम्युअल स्टाऊफर ने अमरीकी सिपाहियों
के अपने अध्ययन में किया। बाद में मर्टन ने इसमें संशोधन कर इसे
सन्दर्भ समूह के साथ जोड़ दिया।
सापेक्षिक वंचना या हीनता एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी
परिस्थितियों को दूसरे व्यक्तियों (सन्दर्भ समूह) की तुलना में हीन एवं
कमजोर अनुभव करता है। एक लखपति द्वारा अपने करोड़पति साथियों के समक्ष अपने
आपको हीन समझने का अहसास इसी स्थिति का परिचायक है। इस प्रकार का वंचन
सापेक्षिक होता है क्योंकि इसकी माप किसी निरपेक्ष या स्थाई मानदंड के आधार
पर संभव नहीं है।
मर्टन ने 1949 में प्रिंस्टन विश्वविद्यालय प्रेस से प्रकाशित
The American Soldier के निष्कर्षों के विश्लेषण के दौरान सापेक्षिक
वंचना का उल्लेख किया। The American Soldier के निष्कर्षों का विवेचन इस प्रकार है -
सेना के अविवाहित सैनिकों से तुलना करते हुए विवाहित जवान यह महसूस करता था
कि फ़ौज में भर्ती होने से अविवाहित लोगों की अपेक्षा वह अधिक त्याग
करता है और विवाहित असैनिकों से अपनी तुलना करते हुए वह यह सोच सकता
था की उससे उन बलिदानों की अपेक्षा की जा रही है जिससे वे लोग पूरी तरह
बचते रहे हैं।
मर्टन के अनुसार यही स्थिति सापेक्षिक वंचन कहलाती है।
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है क्योंकि प्रसन्नता तथा वंचन स्वयं में परिपूर्ण नहीं होते। इसकी मात्रा इस पर निर्भर करती है की उसे आंकने के लिए कौन सा पैमाना अपनाया गया है। यह सन्दर्भ के स्वरुप पर निर्भर है। विवाहित सैनिक की चिंता यह नहीं है की उसे क्या मिलता है और उस जैसे दूसरे विवाहित सैनिकों को क्या प्राप्त होता है। बल्कि उसकी चिंता यह है की वह किस चीज से वंचित हो रहा है। वह जानता है की उसके अविवाहित साथी तुलनात्मक दृष्टि से स्वतंत्र हैं। उन पर पत्नी या बच्चों का दायित्त्व नहीं है।
विवाहित सैनिक अन्य विवाहित असैनिक लोगों के साथ तुलना करने पर भी अपने आपको वंचित महसूस करता है क्योंकि विवाहित सैनिक उस पारिवारिक सुःख से वंचित है जो असैनिक विवाहित को मिल रहा है क्योंकि सैनिक होने के नाते सामान्य पारिवारिक जीवन का आनंद उठाने की उसकी स्थिति नहीं है। अतः विवाहित सैनिक जिस प्रकार के सन्दर्भ समूह से अपनी तुलना करता है ,उसी के अनुसार वह स्वयं को वंचित महसूस करता है।
सन्दर्भ-समूह के विषय में मर्टन कहते हैं कि "लोग अपने आचरण तथा मूल्यांकनों के निर्धारणों के लिए अक्सर अपने समूह से भिन्न अन्य समूहों के अनुकूल अपने को ढालते हैं।"
मर्टन के अनुसार यही स्थिति सापेक्षिक वंचन कहलाती है।
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है क्योंकि प्रसन्नता तथा वंचन स्वयं में परिपूर्ण नहीं होते। इसकी मात्रा इस पर निर्भर करती है की उसे आंकने के लिए कौन सा पैमाना अपनाया गया है। यह सन्दर्भ के स्वरुप पर निर्भर है। विवाहित सैनिक की चिंता यह नहीं है की उसे क्या मिलता है और उस जैसे दूसरे विवाहित सैनिकों को क्या प्राप्त होता है। बल्कि उसकी चिंता यह है की वह किस चीज से वंचित हो रहा है। वह जानता है की उसके अविवाहित साथी तुलनात्मक दृष्टि से स्वतंत्र हैं। उन पर पत्नी या बच्चों का दायित्त्व नहीं है।
विवाहित सैनिक अन्य विवाहित असैनिक लोगों के साथ तुलना करने पर भी अपने आपको वंचित महसूस करता है क्योंकि विवाहित सैनिक उस पारिवारिक सुःख से वंचित है जो असैनिक विवाहित को मिल रहा है क्योंकि सैनिक होने के नाते सामान्य पारिवारिक जीवन का आनंद उठाने की उसकी स्थिति नहीं है। अतः विवाहित सैनिक जिस प्रकार के सन्दर्भ समूह से अपनी तुलना करता है ,उसी के अनुसार वह स्वयं को वंचित महसूस करता है।
सन्दर्भ-समूह के विषय में मर्टन कहते हैं कि "लोग अपने आचरण तथा मूल्यांकनों के निर्धारणों के लिए अक्सर अपने समूह से भिन्न अन्य समूहों के अनुकूल अपने को ढालते हैं।"
सन्दर्भ-समूह के प्रकार -
मर्टन के अनुसार सन्दर्भ-समूहों के दो प्रकार हैं-
1-सकारात्मक सन्दर्भ-समूह -
ऐसा सन्दर्भ समूह जिसे व्यक्ति पसंद करता है और अपने आचरण का निर्धारण करने
तथा उपलब्धियों एवं काम काज का मूल्यांकन करने के लिए उसे गंभीरता से
अपनाता है।
2-नकारात्मक सन्दर्भ-समूह-
नकारात्मक सन्दर्भ समूह जिसे व्यक्ति नापसंद तथा अस्वीकार करता है और
उसके अनुरूप आचरण करने की बजाय उसके बिपरीत प्रतिमानों को अपनाता है।
मर्टन के अनुसार- "सकारात्मक प्रकार में समूह के प्रतिमानों अथवा मानकों का
अभिप्रेरणात्मक आत्मसात किया जाता है और वह स्वयं के मूल्याङ्कन का
आधार होता है जबकि नकारात्मक प्रकार में अस्वीकृति का भाव निहित है
,जिसमे प्रतिमानों की अस्वीकृति ही नहीं ,बल्कि विपरीत प्रतिमानों की
रचना भी शामिल है।"
सन्दर्भ-समूह के निर्धारक तत्त्व -
मर्टन ने उन निर्धारक तत्त्वों की चर्चा की है जिनसे प्रेरित होकर
एक ही व्यक्ति के लिए आर्थिक,राजनीतिक,तथा धार्मिक जीवन जैसे अलग-अलग
उद्देश्यों के लिए अलग-अलग सन्दर्भ समूहों का चयन करना संभव हो जाता है।
निम्नलिखित कारकों के आधार पर सन्दर्भ समूह का चयन किया जाता है -
1-सन्दर्भ व्यक्ति-
लोग सन्दर्भ समूहों का ही नहीं सन्दर्भ व्यक्ति का भी चयन करते हैं,क्योंकि
कुछ व्यक्ति अपने चमत्कारिक प्रभाव,प्रस्थिति,चमक-दमक आदि से लोगों को
अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
जैसे -सचिन तेंदुलकर। सन्दर्भ व्यक्ति को प्रायः भूमिका आदर्श की तरह माना
जाता है ,किन्तु मर्टन ने इनमे अंतर बताया है। भूमिका आदर्श की अवधारणा का
क्षेत्र सीमित होता है क्योंकि इसमें किसी व्यक्ति की एक या दो चुनी हुई
भूमिकाओं के मामले में उसे आदर्श माना जाता है। किन्तु जिस व्यक्ति ने
सन्दर्भ व्यक्ति के साथ स्वयं को सम्बद्ध किया है उसे"अनेक भूमिकाओं में उस
व्यक्ति के आचरण तथा मूल्यों को आत्मसात करना अच्छा लगेगा।"
2-सदस्यता समूहों में से सन्दर्भ समूहों का चयन-
हर व्यक्ति अनेक समूहों से जुड़ा होता है। अपने परिवार से लेकर पड़ोस ,जाति
समूह ,राजनितिक दल और धार्मिक संगठन से उसका सम्बन्ध रहता है। किन्तु उसे
मालूम होता है कि सभी सदस्यता समूह समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं होते।
उनमे से कुछ का ही सन्दर्भ समूह के रूप में चयन किया जाता है। सदस्यता समूह
कई प्रकार के होते हैं। मर्टन के अनुसार समूहों का उपयुक्त वर्गीकरण आवश्यक
है। इस सन्दर्भ में मर्टन ने 26 समूह विशेषताओं की अस्थाई सूची तैयार
की।
जिस समूह की सदस्यता अधिक समय तक चलने की सम्भावना नहीं होती उसे सन्दर्भ
समूह के रूप में अपनाने की सम्भावनाएं कम होती हैं। किन्तु जो समूह लम्बी
अवधि तक चलने वाले होते हैं जैसे कि नातेदारी या जाति समूह वे अवश्य ही
सन्दर्भ समूह बनते हैं। यही कारण है की अनेक लोगों के जीवन को दिशा देने
में कॉलेज के दिनों के उनके मित्र नहीं बल्कि नातेदारी या जाति समूह
निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
3-गैर-सदस्यता समूहों का चयन-
यह समझना आवश्यक है कि लोग क्यों और किन परिस्थितियों में गैर सदस्यता समूह
को अपने सन्दर्भ समूह के रूप में चयनित करते हैं।
मर्टन के अनुसार इसके लिए मुख्यतः तीन कारक उत्तरदायी होते हैं -
1- सन्दर्भ समूह का चयन इस बात पर निर्भर करता है समूह की एक संस्था की दृष्टि से प्रतिष्ठा प्रदान करने की क्षमता कितनी है। क्योंकि समाज में सभी समूहों की शक्ति और प्रतिष्ठा एक जैसी नहीं होती है।जैसे-प्राध्यापकों के लिए I.A.S.अधिकारी सन्दर्भ समूह हैं क्योंकि आधुनिक भारतीय समाज में I.A.S.अधिकारियों को प्राध्यापकों की अपेक्षा अधिक प्रतिष्ठा तथा अधिकार प्राप्त हैं। जिस गैर सदस्यता समूह को अधिक प्रतिष्ठा और अधिकार प्राप्त नहीं होते हैं उसके सन्दर्भ समूह बनने की सम्भावना बहुत कम होती है।
2- इस बात की जाँच की जाये कि आम तौर पर किस प्रकार के लोग गैर सदस्यता समूहों को अपने सन्दर्भ समूह के रूप में अपनाते हैं।
मर्टन का मानना है की सामान्यतः किसी समूह में अलग-थलग पड़ गए लोग ही गैर सदस्यता समूह के मूल्यों को सन्दर्भ प्रतिमानों के रूप में अपनाते हैं। क्योंकि अपनी विद्रोही प्रवृत्ति अथवा आगे बढ़ने की प्रबल इच्छा के फलस्वरूप वे अपने समूह से असंतुष्ट रहते हैं,जिसके कारण उनके लिए गैर सदस्यता समूहों के मूल्यों को अपना लेने की सम्भावनाएं अधिक रहती हैं।
यहाँ मर्टन ने अभिजन वर्ग के हताश व्यक्ति का उल्लेख किया है जो उस वर्ग की राजनीतिक विचारधारा को अपना लेता है जो उसके अपने वर्ग से कम शक्तिशाली होता है।
3-वह सामाजिक प्रणाली जिसमे सामाजिक गतिशीलता की अपेक्षाकृत दर ज्यादा है उसमे गैर सदस्यता समूह के सदस्यों को अपने समूह का सदस्य बनाने की संभावनाएं ज्यादा हो जाती हैं।
1- सन्दर्भ समूह का चयन इस बात पर निर्भर करता है समूह की एक संस्था की दृष्टि से प्रतिष्ठा प्रदान करने की क्षमता कितनी है। क्योंकि समाज में सभी समूहों की शक्ति और प्रतिष्ठा एक जैसी नहीं होती है।जैसे-प्राध्यापकों के लिए I.A.S.अधिकारी सन्दर्भ समूह हैं क्योंकि आधुनिक भारतीय समाज में I.A.S.अधिकारियों को प्राध्यापकों की अपेक्षा अधिक प्रतिष्ठा तथा अधिकार प्राप्त हैं। जिस गैर सदस्यता समूह को अधिक प्रतिष्ठा और अधिकार प्राप्त नहीं होते हैं उसके सन्दर्भ समूह बनने की सम्भावना बहुत कम होती है।
2- इस बात की जाँच की जाये कि आम तौर पर किस प्रकार के लोग गैर सदस्यता समूहों को अपने सन्दर्भ समूह के रूप में अपनाते हैं।
मर्टन का मानना है की सामान्यतः किसी समूह में अलग-थलग पड़ गए लोग ही गैर सदस्यता समूह के मूल्यों को सन्दर्भ प्रतिमानों के रूप में अपनाते हैं। क्योंकि अपनी विद्रोही प्रवृत्ति अथवा आगे बढ़ने की प्रबल इच्छा के फलस्वरूप वे अपने समूह से असंतुष्ट रहते हैं,जिसके कारण उनके लिए गैर सदस्यता समूहों के मूल्यों को अपना लेने की सम्भावनाएं अधिक रहती हैं।
यहाँ मर्टन ने अभिजन वर्ग के हताश व्यक्ति का उल्लेख किया है जो उस वर्ग की राजनीतिक विचारधारा को अपना लेता है जो उसके अपने वर्ग से कम शक्तिशाली होता है।
3-वह सामाजिक प्रणाली जिसमे सामाजिक गतिशीलता की अपेक्षाकृत दर ज्यादा है उसमे गैर सदस्यता समूह के सदस्यों को अपने समूह का सदस्य बनाने की संभावनाएं ज्यादा हो जाती हैं।
4-मूल्यों तथा प्रतिमानों को परिभाषित करने के लिए सन्दर्भ समूहों की भिन्नता-
मर्टन के अनुसार
"यह नहीं समझा जाना चाहिए कि वही समूह आचरण के प्रत्येक क्षेत्र में
समान रूप से सन्दर्भ समूह की भूमिका निभाते हैं।"
अर्थात सन्दर्भ समूह का चयन अंततः उन मूल्यों तथा प्रतिमानों के स्वरुप तथा
स्तर पर निर्भर करता है जिन्हे व्यक्ति ने महत्त्व दिया है।जो समूह किसी के
लिए राजनीतिक विचारधारा के मामले में सन्दर्भ समूह है हो सकता है धार्मिक
सिद्धांतों के मामले में वे एकदम असंगत हों।
5-निरंतर सक्रिय सम्पर्क वाले उपसमूहों अथवा प्रस्थिति श्रेणियों में से सन्दर्भ समूहों का चयन-
सन्दर्भ-समूह का चयन करना बहुत जटिल होता है। इसीलिए
मर्टन ने मतदान सम्बन्धी आचरण की चर्चा करते हुए कहा है कि मजदूर
यूनियन जैसे औपचारिक संगठन उस संघ के कुछ सदस्यों के लिए ही सशक्त सन्दर्भ
समूह के रूप में काम करते हैं, जबकि अन्य लोगों के लिए यूनियन में उनके
निकट के साथी ही सन्दर्भ की भूमिका निभाते हैं।
सन्दर्भ-समूहों के संरचनात्मक तत्त्व -
मर्टन का यह कहना है कि अपने समूह से अनुरूपता न रखने पर गैर
सदस्यता समूहों को सन्दर्भ-समूह के रूप में काम करने की सम्भावना दिखाई
देती है। इसके अतिरिक्त मर्टन यह भी स्पष्ट करते हैं कि व्यक्ति विशेष
भूमिका-पटल और प्रस्थिति-पटल के संरचनात्मक परिणामों से उत्त्पन्न संघर्ष
की मात्रा को किस तरह कम करता है।
1-प्रेक्षणीयता और दृश्यमानता :प्रतिमानों ,मूल्यों और भूमिका निर्वाहन की जानकारी के अनुकृत माध्यम-
अपनी स्थिति की तुलना दूसरों से करते समय व्यक्ति को उनकी स्थिति की
जानकारी होना आवश्यक है जिससे उसने अपनी तुलना की है। मर्टन का कहना
है कि सन्दर्भ-समूह आचरण के सिद्धांत में सम्प्रेषण के उन माध्यमों
का भी अध्ययन शामिल होना चाहिए जिनसे यह जानकारी प्राप्त होती है।
2-अनुरूपता का अभाव:सन्दर्भ समूह आचरण का एक प्रकार -
सन्दर्भ-समूह के अध्ययन से संरचना के एक और पहलू की जानकारी मिलती
है ,वह है अनुरूपता के अभाव(Non-conformity) का प्रभाव।
मर्टन कहते हैं कि अनुरूपता न रखने वालों को"शक्तिशाली"माना
जाता है,उन्हें साहसी और बड़े जोखिम उठाने में समर्थ समझा जाता है। ऐसे
लोगों के अनुभव का संरचनात्मक प्रभाव सदस्यता समूहों पर भी पड़ने की
सम्भावना बनी रहती है।
वास्तव में अनुरूपता न रखने वाले व्यक्ति जब कुछ सम्मान अर्जित करने लगते
हैं तो इसका अर्थ है कि सदस्यता समूह में अपने तथा अपने मूल्यों और
प्रतिमानों के प्रति अनिश्चितता उभरने लगती है। गैर सदस्यता समूह के प्रति
अनुरूपता एक प्रकार से सदस्यता समूह में द्वन्द्व तथा तनाव की शुरुआत करती
है। इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि गैर सदस्यता
सन्दर्भ के प्रति अनुरूपता के साथ अनुरूपता न रखने वाले अपने सदस्यता समूह
के भीतर परिवर्तन और संघर्ष की संभावना का रास्ता खोल देते हैं।
3-भूमिका-पटल, प्रस्थिति-पटल और प्रस्थिति-क्रम -
सन्दर्भ-समूह के आचरण का अध्ययन करने के लिए
भूमिका-पटल,प्रस्थिति-पटल और प्रस्थिति-क्रम की गतिकी को समझना आवश्यक है।
निष्कर्ष-
सन्दर्भ-समूह के अध्ययन से हमें यह पता चलता है की सन्दर्भ-समूह के
आचरण का अध्ययन बहुत ही उपयोगी है। इसके अध्ययन से हमें यह समझने में
सहायता मिलती है कि कब और क्यों अपनी स्थिति की तुलना दूसरों की स्थिति से
की जाती है,और उसी के अनुरूप अपने आचरण,जीवन-शैली तथा भूमिका निर्वाहन को
ढाला जाता है। इस अध्ययन से हमें यह भी पता चलता है कि कब और कैसे सदस्यता
समूह तथा गैर-सदस्यता समूह सन्दर्भ समूह के रूप में कार्य करते हैं।
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