मर्टन का मध्य अभिसीमा सिद्धान्त (Merton's Middle-Range Theory)

मर्टन का मध्य अभिसीमा सिद्धान्त

या 

मध्यवर्ती सिद्धांत 

मध्यवर्ती सिद्धांत है क्या ?

लघु कार्यवाहक प्राक्कल्पनाओं तथा अमूर्त महत सिद्धांतों के बीच के सिद्धांत को मध्यवर्ती सिद्धांत कहा जाता है। 
मध्यवर्ती सिद्धांतों की रचना आनुभविक शोध के वास्तविक तथ्यों के आधार पर होती हैं तथा ये सीमित क्षेत्र से सम्बंधित होते हैं।
मध्यवर्ती सिद्धांत के विचार का प्रतिपादन समाज विज्ञानों में सर्वप्रथम टी.एच.मार्शल ने 1946 में लन्दन विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता पद का भार ग्रहण करते समय अपने उद्बोधन में किया था। बाद में इस विचारधारा को R.K. मर्टन ने अग्रसर किया।
रॉबर्ट किंग मर्टन द्वारा विकसित मध्य-श्रेणी सिद्धांत सूक्ष्म सिद्धांत और अनुभवजन्य अनुसंधान को एकीकृत करने के उद्देश्य से समाजशास्त्रीय सिद्धांत के लिए एक दृष्टिकोण है।यह दृष्टिकोण सामाजिक सिद्धांत के पहले से विकसित "भव्य" सिद्धांत जैसे कि प्रकार्यात्मकता और कई संघर्ष सिद्धांत के विपरीत खड़ा है।

मर्टन के अनुसार -
"हमारा प्रमुख कार्य आज सीमित वैचारिक सीमाओं पर लागू विशेष सिद्धांतों को विकसित करना है,उदाहरण के लिए विचलित व्यवहार, उद्देश्यपूर्ण कार्रवाई के अप्रत्याशित परिणाम, सामाजिक धारणा, संदर्भ समूह, सामाजिक नियंत्रण, सामाजिक संस्थानों की अन्योन्याश्रितता के बजाय कुल वैचारिक संरचना की तलाश करें जो मध्य श्रेणी के इन और अन्य सिद्धांतों को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है।"

मध्यवर्ती सिद्धान्त की परिभाषा -

R.K. मर्टन के अनुसार -
"मध्यवर्ती सिद्धान्त तार्किक रूप से अन्तर्सम्बन्धित ऐसी अवधारणाएं हैं जो व्यापक किन्तु महती सीमित क्षेत्र से सम्बन्धित होती हैं।इन सिद्धांतों का कार्य छोटी -छोटी प्राक्कल्पनाओं और वृहद अमूर्त सिद्धांतों (Grand Theories) के बीच की खाईं को पाटना है।" 

A.M. रॉस के अनुसार -
A.M. रॉस ने इसे "सीमित सिद्धान्त" कहा है और इसे परिभाषित करते हुए लिखा है की -"किसी विचाराधीन विषय वस्तु से सम्बंधित परिभाषाओं ,अनुमानों तथा सामान्य प्राक्कल्पनाओं के एक ऐसे समन्वित समूह को सिमित सिद्धांत कहा जाता है जिसके द्वारा विशिष्ट तथा परिक्षण योग्य प्राक्कल्पनाओं के एक व्यापक तथा स्थाई समूह का तार्किक आधार पर प्रतिपादन किया जा सकता है।"

रेमंड बोदोन(Raymond Boudon )के अनुसार -
रेमंड बोदोन ने दो विचारों के प्रति प्रतिबद्धता के रूप में मध्यम श्रेणी के सिद्धांत को परिभाषित किया है  पहला सकारात्मक है तथा दूसरा नकारात्मक। 

अर्थात "मध्य अभिसीमा सिद्धान्त" एक विशिष्ट सिद्धांत को संदर्भित नहीं करता है, बल्कि यह सिद्धांत निर्माण के लिए एक दृष्टिकोण है।
अपने मध्यवर्ती सिद्धांत की चर्चा के सन्दर्भ में मर्टन ने अपने गुरु पार्सन्स के वृहद सिद्धांत (Grand theories )की कटु आलोचना की है। मर्टन की सामान्य वैचारिक दृष्टि अपने गुरु पार्सन्स की अपेक्षा कम अमूर्त है और वे सामान्य सिद्धांतों को आनुभविक परीक्षण की कसौटी पर कसने में विश्वास रखते हैं।

मध्य-श्रेणी सिद्धांत कार्यक्रम की शुरुआत के साथ मर्टन ने इस बात की वकालत की कि समाजशास्त्रियों को संपूर्ण सामाजिक दुनिया को समझने के प्रयास के बजाय,सामाजिक वास्तविकता के उन मापन योग्य पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जिनका अलग-अलग सामाजिक घटनाओं के रूप में अध्ययन किया जा सकता है।

R.K. मर्टन अनुभवजन्य अनुसंधान में गहरी रुचि रखते थे और सिद्धांत तथा अनुसंधान के बीच बातचीत  के आधार पर पर्याप्त अनुभवजन्य साक्ष्य के साथ "मध्यम-श्रेणी सिद्धांत"या "मध्यवर्ती सिद्धांत" की स्थापना की वकालत करते थे। 

रॉबर्ट किंग मर्टन का मध्यवर्ती सिद्धांत -

मर्टन का मूल उद्देश्य था समाजशास्त्र को विज्ञान बनाना। मर्टन चाहते थे की जिस प्रकार विज्ञान में सार्वभौमिक या वैज्ञानिक नियमों को प्रतिपादित किया जाता है उसी प्रकार समाजशास्त्र में भी उन प्राकृतिक नियमों को लागू किया जाये तथा सार्वभौमिक नियम प्रतिपादित किये जाएँ तो समाजशास्त्र स्वतः ही विज्ञानं बन जायेगा और सामाजिक घटनाओं का यथार्थ वर्णन करेगा। मर्टन के समय तक समाजशास्त्र में दो प्रकार के सिद्धांत कार्य करते थे -

1-वृहद सिद्धान्त -(Macro Theory )-

ये सिद्धांत इतने विस्तृत होते हैं की इनमे प्रत्यक्षवादी पद्धति का प्रयोग पूर्णतः नहीं किया जाता है। इसके माध्यम से सामान्य जानकारी तो प्राप्त हो जाएगी किन्तु वह जानकारी वैज्ञानिक या यथार्थ नहीं होगी। 
उदाहरणस्वरूप -पार्सन्स के सिद्धांत। जैसे -सामाजिक व्यवस्था का सिद्धांत वृहद सिद्धांत के अंतर्गत आएगा। ये सिद्धांत अमूर्त अनुभववाद पर आधारित होते हैं न की तथ्यों और आंकड़ों पर इसलिए इनकी प्रमाणिकता पर संदेह उत्पन्न होता है। यदि इस तरह के सिद्धांतों का प्रयोग समाजशास्त्र में किया जायेगा तो समाजशास्त्र कभी विज्ञान नहीं बन पायेगा क्योंकि विज्ञान तथ्यों एवं आंकड़ों पर आधारित होता है। 

2-सूक्ष्म सिद्धांत -(Micro Theory )

ये सिद्धांत इतने सूक्ष्म होते हैं कि इनमे तथ्यों एवं आंकड़ों का सूंदर प्रयोग तो किया जाता है किन्तु इनमे सार्वभौमिक और सामान्य जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती है। जैसे W.F. व्हाइट ने नगरीय समाज में गली के नुक्कड़ वाले समाज के अध्ययन के आधार पर "Street Corner Society" नाम की पुस्तक लिखी। किन्तु यदि सिद्धांत अति सूक्ष्म होंगे तो उनमे तथ्यों एवं आंकड़ों का प्रयोग तो हो जायेगा किन्तु उसके माध्यम से सामान्य जानकारी नहीं प्राप्त की जा सकती। 
इसीलिए मर्टन कहते हैं की यदि समाजशास्त्र में मध्यस्तर के सिद्धांत का प्रयोग किया जाये तो समाजशास्त्र स्वतः ही विज्ञान बन जायेगा क्योंकि मध्यस्तर के सिद्धांतों में तथ्यों एवं आंकड़ों का सूंदर प्रयोग किया जा सकता है साथ ही साथ सामान्य एवं सार्वभौमिक नियम भी प्रतिपादित किये जा सकते हैं। 
उदाहरणस्वरूप -दुर्खीम का आत्महत्या का सिद्धांत एवं वेबर का प्रोटेस्टेन्ट धर्म से पूंजीवाद के विकास का सिद्धांत मध्यस्तर सिद्धांत के अन्तर्गत आता है।

रॉबर्ट किंग मर्टन के अनुसार 
अगर समाजशास्त्रीय सिद्धांत को महत्वपूर्ण रूप से आगे बढ़ाना है तो परस्पर इन बिंदुओं पर आगे बढ़ाना चाहिए 
(1)- विशेष सिद्धांत विकसित करके जिससे उन परिकल्पनाओं की खोज की जा सके, जिनकी आनुभविक रूप से जांच की जा सकती है। 
(2)- एक प्रगतिशील,अधिक सामान्य वैचारिक योजना विकसित करके जो कि पर्याप्त हो तथा विशेष सिद्धांतों के समूहों को समेकित करें।

मर्टन के सिद्धांत की आलोचना -

परवर्ती समाजशास्त्रियों ने इनके मध्यवर्ती सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा कि मर्टन का मध्यस्तर कहाँ है ये वह निश्चित नहीं कर पाए। उन्होंने सिद्धांत नहीं दिया बल्कि वैज्ञानिक सिद्धांतों की सीमा निर्धारित कर दी। 

निष्कर्ष -

मर्टन का विचार था कि समाजशास्त्र के क्षेत्र में ऐसे सार्थक सिद्धांतों की रचना की जाये जिनका आनुभविक परीक्षण किया जा सके। इसके लिए उन्होंने सूक्ष्म सिद्धांत और अमूर्त अनुभववाद के बीच का रास्ता अपनाया और मध्यवर्ती सिद्धान्त के प्रयोग का सुझाव दिया। 

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भले ही मर्टन के इस सिद्धांत की कितनी भी आलोचना क्यों न हुई हो लेकिन सामाजिक विज्ञानों में इनके सिद्धांत की प्रासंगिकता से इनकार नहीं किया जा सकता।


इसे भी देखें -

मर्टन का संरचनावाद या अनुरूपता एवं विपथगमन  






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