मर्टन का संरचनावाद या अनुरूपता एवं विपथगमन
मर्टन का संरचनावाद
या
अनुरूपता एवं विपथगमन
संरचना शब्द का प्रयोग सामान्यतः किसी समष्टि की इकाइयों ,अंगों तथा
अवयवों के ऐसे प्रतिमानित संबंधों के लिए किया जाता है जो अपेक्षाकृत स्थिर
एवं स्थाई होते हैं।
अतः किसी बृहत् रचना के विभिन्न भागों अथवा निर्मायक तत्त्वों के आपसी
सम्बन्धों में जो एक व्यवस्था अथवा संगठन होता है उसे संरचना कहते
हैं।
मर्टन का संरचना सम्बन्धी विचार पार्सन्स के संरचना सम्बन्धी विचारों से प्रभावित है,और पार्सन्स संरचना की व्याख्या प्रस्थिति और भूमिका के सन्दर्भ में करते हैं इसलिए मर्टन भी संरचना की व्याख्या प्रस्थिति और भूमिका के सन्दर्भ में करते हैं और मानते हैं की संरचना का निर्माण भूमिका पुंज + प्रस्थिति पुंज +प्रस्थिति क्रम के माध्यम से होता है।
मर्टन का सिद्धान्त समझने से पूर्व समझ लेते हैं की प्रस्थिति और भूमिका है क्या ?
मर्टन का संरचना सम्बन्धी विचार पार्सन्स के संरचना सम्बन्धी विचारों से प्रभावित है,और पार्सन्स संरचना की व्याख्या प्रस्थिति और भूमिका के सन्दर्भ में करते हैं इसलिए मर्टन भी संरचना की व्याख्या प्रस्थिति और भूमिका के सन्दर्भ में करते हैं और मानते हैं की संरचना का निर्माण भूमिका पुंज + प्रस्थिति पुंज +प्रस्थिति क्रम के माध्यम से होता है।
मर्टन का सिद्धान्त समझने से पूर्व समझ लेते हैं की प्रस्थिति और भूमिका है क्या ?
प्रस्थिति और भूमिका -समाज द्वारा दिया गया पद प्रस्थिति है और पद के अनुरूप विशेष कार्य
ही भूमिका है।
भूमिका-पुंज-(Role-set)
भूमिका पुंज का तात्पर्य किसी व्यक्ति के एक विशेष प्रस्थिति से
जुड़ी हुई विभिन्न भूमिकाओं से है जो सामाजिक संरचना का निर्माण करती
हैं। मर्टन के अनुसार-"भूमिका पुंज से मेरा तात्पर्य भूमिका संबंधों के उस ताने बाने से
है जिसमे एक व्यक्ति एक विशिष्ट सामाजिक प्रस्थिति को धारण करने के
कारण बंधा होता है।"
जैसे -एक विद्यालय के अध्यापक के रूप में एक व्यक्ति को कई व्यक्तियों के
साथ अपने शिष्यों ,सहयोगियों, प्रधानाध्यापक,अध्यापक संघ,अभिभावक
संघ,विद्यालय बोर्ड, स्थानीय प्रशासन के व्यक्तियों के साथ कई भूमिकाओं
का निर्वाह करना पड़ता है। उसे अपनी अध्यापक की प्रस्थिति में अध्यापन के
साथ-साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता ,समाजीकरण के एक अभिकर्ता,एक नेता,एक
निर्णायक तथा एक पथ प्रदर्शक जैसी विभिन्न भूमिकाएं भी अदा करनी
पड़ती हैं। इन सभी भूमिकाओं के साथ जुड़े दायित्वों का ताना बाना ही भूमिका
पुंज कहलाता है।
अर्थात -एक विशेष प्रस्थिति से जुड़ी सभी भूमिकायें भूमिका पुंज हैं।
अर्थात -एक विशेष प्रस्थिति से जुड़ी सभी भूमिकायें भूमिका पुंज हैं।
प्रस्थिति-पुंज -(Status-set)
"एक अकेले व्यक्ति द्वारा धारण की गई वभिन्न तथा विशिष्ट प्रस्थितियों
के संकुल को प्रस्थिति-पुंज कहते हैं।"
एक व्यक्ति की अनेक प्रस्थितियों में से किसी एक में परिवर्तन होने पर सम्पूर्ण प्रस्थिति-पुंज में भी परिवर्तन हो जाता है।अतः एक प्रस्थिति पुंज किसी निर्दिष्ट समय में एक व्यक्ति की भिन्न प्रस्थितियों के समूह को प्रकट करता है।
एक ही व्यक्ति के कई सामाजिक पद होते हैं जैसे -कोई व्यक्ति एक डॉक्टर ,एक पति,एक पिता ,एक नागरिक, एक राजनीतिक दल का सदस्य ,स्वयंसेवी संगठन में मंत्री आदि हो सकता है। कई पदों के इस संकुल को ही प्रस्थिति-पुंज या पद-पुंज कहा जाता है।प्रत्येक प्रस्थिति के साथ एक विशेष भूमिका जुड़ी होती है।
एक व्यक्ति की कितनी प्रस्थितियाँ होती हैं ये इस बात पर निर्भर करता है की वह जीवन के कितने क्षेत्रों में भाग लेता है।
प्रकट प्रस्थितियाँ(Manifest status )-
किसी विशिष्ट सामाजिक स्थिति में कोई एक या कुछ एक प्रस्थितियाँ ही वास्तव में सार्थक होती हैं और विद्यमान स्थिति को एक पहचान देती हैं ये प्रकट प्रस्थितियाँ(Manifest status ) कहलाती हैं।
अप्रकट प्रस्थितियाँ (Latent status )-
प्रस्थिति पुंज में किसी निर्दिष्ट समय पर जो प्रस्थिति या प्रस्थितियाँ सार्थक नहीं रहती हैं वे अप्रकट प्रस्थितियाँ (Latent status ) कहलाती हैं।
जैसे -किसी पारिवारिक भोज के समय नातेदारी से सम्बंधित प्रस्थितियाँ अधिक महत्त्व रखती हैं। उस समय प्रस्थिति पुंज में सम्मिलित अन्य व्यवसायी प्रस्थितियाँ निष्क्रिय रहती हैं और सामान्यतः उस समय उनका कोई प्रभाव नहीं रहता है। पारिवारिक भोज के समय प्रिंसिपल से जुड़े दायित्त्वों का महत्त्व नगण्य रहता है।
उदाहरण - परीक्षा पास करने के लिए नक़ल करना ,धनी बनने के लिए चोरी या डकैती करना इत्यादि।
कभी-कभी सामाजिक संरचना ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करती है कि संस्थागत साधनों का प्रभाव व्यक्ति के ऊपर बहुत अधिक दिखाई देता है जिससे व्यक्ति संस्थागत साधन का ही पालन करता रहता है और सांस्कृतिक लक्ष्य की उपेक्षा कर देता है जिससे समाज में विचलन आता है।
जैसे- नौकरशाही व्यवस्था की सामाजिक संरचना ऐसी है जहाँ नियम कानूनों का कड़ाई से पालन किया जाता है, इसलिए वहां नियम कानून ही अंतिम लक्ष्य बन जाते हैं और वास्तविक लक्ष्य की उपेक्षा हो जाती है जिससे समाज में विचलन आता है जिसे कर्मकांडीयता कहा जाता है।
कभी-कभी सामाजिक संरचना के अंतर्गत जब व्यक्ति संस्थागत साधनों के माध्यम से सांस्कृतिक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पाता है तो दोनों के प्रति उदासीन हो जाता है अर्थात न तो संस्थागत साधन को स्वीकार करता है न तो सांस्कृतिक लक्ष्य को स्वीकार करता है। यह भी समाज में विचलन के नाम से जाना जाता है।
जैसे- साधू ,संन्यासी,शराबी इत्यादि
कभी-कभी सामाजिक संरचना में जब व्यक्ति सांस्कृतिक लक्ष्य और संस्थागत साधन के माध्यम से अपनी आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाता तो दोनों के प्रति उदासीन हो जाता है अर्थात दोनों को अस्वीकार करके खुद के ऐसे लक्ष्य विकसित कर लेता है जिनको एक समूह विशेष ही मान्यता प्रदान करता है और उस लक्ष्य की प्राप्ति के ऐसे साधन विकसित कर लेता है जो समाज स्वीकृत तो नहीं होते हैं किन्तु एक समूह विशेष उसे मान्यता देता है और फिर उसी सामूहिक साधन के माध्यम से लक्ष्य की प्राप्ति करने का प्रयास करता है तो इसे विचलन कहा जाता है। जो कि विद्रोह की श्रेणी में आता है।
जैसे - नक्सलवाद
(नोट -प्रतिमान हीनता की अवधारणा दुर्खीम ने दिया ,जिसका तात्पर्य होता है कि समाज की आदर्शात्मक व्यवस्था का टूट जाती है और व्यक्ति विचलन करने लगता है।)
एक व्यक्ति की अनेक प्रस्थितियों में से किसी एक में परिवर्तन होने पर सम्पूर्ण प्रस्थिति-पुंज में भी परिवर्तन हो जाता है।अतः एक प्रस्थिति पुंज किसी निर्दिष्ट समय में एक व्यक्ति की भिन्न प्रस्थितियों के समूह को प्रकट करता है।
एक ही व्यक्ति के कई सामाजिक पद होते हैं जैसे -कोई व्यक्ति एक डॉक्टर ,एक पति,एक पिता ,एक नागरिक, एक राजनीतिक दल का सदस्य ,स्वयंसेवी संगठन में मंत्री आदि हो सकता है। कई पदों के इस संकुल को ही प्रस्थिति-पुंज या पद-पुंज कहा जाता है।प्रत्येक प्रस्थिति के साथ एक विशेष भूमिका जुड़ी होती है।
एक व्यक्ति की कितनी प्रस्थितियाँ होती हैं ये इस बात पर निर्भर करता है की वह जीवन के कितने क्षेत्रों में भाग लेता है।
प्रकट प्रस्थितियाँ(Manifest status )-
किसी विशिष्ट सामाजिक स्थिति में कोई एक या कुछ एक प्रस्थितियाँ ही वास्तव में सार्थक होती हैं और विद्यमान स्थिति को एक पहचान देती हैं ये प्रकट प्रस्थितियाँ(Manifest status ) कहलाती हैं।
अप्रकट प्रस्थितियाँ (Latent status )-
प्रस्थिति पुंज में किसी निर्दिष्ट समय पर जो प्रस्थिति या प्रस्थितियाँ सार्थक नहीं रहती हैं वे अप्रकट प्रस्थितियाँ (Latent status ) कहलाती हैं।
जैसे -किसी पारिवारिक भोज के समय नातेदारी से सम्बंधित प्रस्थितियाँ अधिक महत्त्व रखती हैं। उस समय प्रस्थिति पुंज में सम्मिलित अन्य व्यवसायी प्रस्थितियाँ निष्क्रिय रहती हैं और सामान्यतः उस समय उनका कोई प्रभाव नहीं रहता है। पारिवारिक भोज के समय प्रिंसिपल से जुड़े दायित्त्वों का महत्त्व नगण्य रहता है।
प्रस्थिति क्रम -
एक व्यक्ति अपने जीवन काल में एक के बाद एक कई प्रस्थितियाँ धारण करता
चला जाता है यह सभी प्रस्थितियाँ एक निश्चित क्रम में प्राप्त की जाती
हैं। यह प्रक्रिया ही प्रस्थिति क्रम की द्योतक है। जैसे-बालक ,युवा
,प्रौढ़ ,तथा वृद्ध की प्रस्थितियाँ एक के बाद एक चलती रहती हैं। इसी
प्रकार कोई बालक पहले पुत्र, फिर पति, फिर पिता, फिर दादा की
प्रस्थितियाँ क्रम से धारण करता है।
अतः मर्टन के अनुसार संरचना का निर्माण समाज में पाए जाने वाले
विभिन्न व्यक्तियों की प्रस्थिति एवं भूमिकाओं का क्रमबद्ध संकलन
है।
मर्टन के अनुसार सामाजिक संरचना का निर्माण व्यक्तियों की
प्रस्थिति व भूमिकाओं के द्वारा ही होता है किन्तु वही संरचना व्यक्ति के
व्यवहार को नियंत्रित व निर्देशित करने लगती है और उसके व्यवहार को
अनुरूपता या संगठनकारी या विचलनकारी मानती है।
मर्टन के अनुसार संरचना के दो महत्त्वपूर्ण साधन होते हैं जिनके माध्यम
से संरचना व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित एवं निर्देशित करती है।
१-संस्थागत साधन
२-सांस्कृतिक लक्ष्य
संस्थागत साधन का तात्पर्य ऐसे नियम कानूनों से है जिनको समाज की स्वीकृति
प्राप्त होती है अर्थात समाज में मान्य नियम कानून हेतु संस्थागत साधन के
नाम से जाने जाते हैं।संस्थागत साधन -
सांस्कृतिक लक्ष्य -
इसका तात्पर्य ऐसे सामूहिक लक्ष्य से है जिसको समाज की संस्कृति मान्यता
प्रदान करती है।
इन्ही दोनों साधनो के माध्यम से संरचना व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित
एवं निर्देशित करती है।
कभी-कभी संरचना ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करती है कि व्यक्ति संस्थागत
साधन के माध्यम से सांस्कृतिक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पाता है ,तो वह
सांस्कृतिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गैर संस्थागत साधनों को अपना लेता है
और उसी के माध्यम से सांस्कृतिक लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है
तो इससे समाज में विचलन आता है जिसे नवाचार कहा जाता है।
(नवाचार विचलन का एक प्रकार है जहाँ व्यक्ति अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए अपना
साधन विकसित कर लेता है जो समाज स्वीकृत नहीं होता है।)अनुरूपता और विपथगमन -
मर्टन के अनुसार व्यक्ति पाँच प्रकार का व्यवहार करता है ,जिनमे से
चार विचलन लाते हैं और एक अनुरूपता लाता है। अर्थात संरचना की पाँच
विशेषताएं होती हैं -
1 -अनुरूपता-
जब संरचना व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित एवं निर्देशित करते समय दोनों के प्रभाव को व्यक्ति के ऊपर बराबर डालती है तो व्यक्ति दोनों को स्वीकार करता है ,जिससे समाज में संगठन या अनुरूपता बनी रहती है। जैसे- किसी छात्र द्वारा परीक्षा पास करने के लिए मेहनत से पढ़ाई करना या अमीर बनने के लिए मेहनत करना। इससे अनुरूपता बनी रहेगी।2 - नवाचार -
उदाहरण - परीक्षा पास करने के लिए नक़ल करना ,धनी बनने के लिए चोरी या डकैती करना इत्यादि।
3- कर्मकांडीयता -
कभी-कभी सामाजिक संरचना ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करती है कि संस्थागत साधनों का प्रभाव व्यक्ति के ऊपर बहुत अधिक दिखाई देता है जिससे व्यक्ति संस्थागत साधन का ही पालन करता रहता है और सांस्कृतिक लक्ष्य की उपेक्षा कर देता है जिससे समाज में विचलन आता है।
जैसे- नौकरशाही व्यवस्था की सामाजिक संरचना ऐसी है जहाँ नियम कानूनों का कड़ाई से पालन किया जाता है, इसलिए वहां नियम कानून ही अंतिम लक्ष्य बन जाते हैं और वास्तविक लक्ष्य की उपेक्षा हो जाती है जिससे समाज में विचलन आता है जिसे कर्मकांडीयता कहा जाता है।
4- प्रत्यावर्तन -
कभी-कभी सामाजिक संरचना के अंतर्गत जब व्यक्ति संस्थागत साधनों के माध्यम से सांस्कृतिक लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पाता है तो दोनों के प्रति उदासीन हो जाता है अर्थात न तो संस्थागत साधन को स्वीकार करता है न तो सांस्कृतिक लक्ष्य को स्वीकार करता है। यह भी समाज में विचलन के नाम से जाना जाता है।
जैसे- साधू ,संन्यासी,शराबी इत्यादि
5- विद्रोह -
कभी-कभी सामाजिक संरचना में जब व्यक्ति सांस्कृतिक लक्ष्य और संस्थागत साधन के माध्यम से अपनी आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाता तो दोनों के प्रति उदासीन हो जाता है अर्थात दोनों को अस्वीकार करके खुद के ऐसे लक्ष्य विकसित कर लेता है जिनको एक समूह विशेष ही मान्यता प्रदान करता है और उस लक्ष्य की प्राप्ति के ऐसे साधन विकसित कर लेता है जो समाज स्वीकृत तो नहीं होते हैं किन्तु एक समूह विशेष उसे मान्यता देता है और फिर उसी सामूहिक साधन के माध्यम से लक्ष्य की प्राप्ति करने का प्रयास करता है तो इसे विचलन कहा जाता है। जो कि विद्रोह की श्रेणी में आता है।
जैसे - नक्सलवाद
निष्कर्ष -
अतः मर्टन के अनुसार सामाजिक संरचना के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति
पांच प्रकार के व्यवहार प्रदर्शित करता है जिसमे से एक अनुरूपता लाता है
और चार विघटन लाते हैं। अर्थात -
मर्टन के अनुसार-
अनुरूपता और विपथगमन सामाजिक संरचना रुपी पैमाने के दो छोर हैं और
संस्थागत साधन तथा सांस्कृतिक लक्ष्य दो तत्त्व होते हैं जो समाज
में व्यक्ति की भूमिका को नियंत्रित एवं निर्देशित करते हैं।
(नोट -प्रतिमान हीनता की अवधारणा दुर्खीम ने दिया ,जिसका तात्पर्य होता है कि समाज की आदर्शात्मक व्यवस्था का टूट जाती है और व्यक्ति विचलन करने लगता है।)
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