समाजशास्त्रीय अवधारणाएँ (Sociological Concepts)

समाजशास्त्रीय अवधारणाएँ 



सामाजिक संरचना 

सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग स्पेन्सर तथा दुर्खीम की कृतियों से लेकर आधुनिक समाजशास्त्रीय साहित्य में प्रचुर मात्रा में हुआ है। सामान्यतः इसका प्रयोग समाजों को निर्मित करने वाली एक या अधिक विशेषताओं के सन्दर्भ में किया गया है। परिणामस्वरूप यह शब्द कहीं कहीं व्यवस्था,संगठन,संकुल,प्रतिमान,संरूप और यहाँ तक कि सम्पूर्ण समाज का पर्याय बन गया है। 

सामाजिक संरचना की अवधारणा-

जब किसी सामाजिक समूह अथवा समाज की संरचना की बात की जाती है तब हमारा तात्पर्य उस समूह के आतंरिक संगठन के स्थाई प्रतिमान अर्थात समूह के सदस्यों के बीच पाए जाने वाली सामाजिक सम्बन्धों के सम्पूर्ण ताने बाने से होता है। इन सम्बन्धों में सामाजिक क्रिया,भूमिकाएं ,प्रस्थितियाँ,संचार व्यवस्था,श्रम विभाजन,तथा आदर्शात्मक व्यवस्था को शामिल किया जाता है। सामाजिक सम्बन्धों का यह ताना बाना समाज को उसका आधारभूत रूप प्रदान करता है तथा सामाजिक व्यवहार को सीमाबद्ध करता है। 

"संरचना किसी व्यवस्था के स्थिर पक्ष को तथा प्रकार्य उसके गत्यात्मक पक्ष को प्रतिबिम्बित करती है।"

संरचना तथा संगठन में अन्तर -

"संरचना" किसी समष्टि के अंगों या भागों के संयोजन को प्रदर्शित करती है ,जबकि "संगठन" से तात्पर्य इन अंगों की गतिविधियों या कार्यकलापों के संयोजन से है।

परिभाषा -

T. पार्सन्स के अनुसार -

"यह एक ऐसा पद है जिसका प्रयोग परस्पर सम्बंधित संस्थाओं ,संगठनों ,तथा सामाजिक प्रतिमानों की एक विशिष्ट व्यवस्था के साथ-साथ किसी समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण की गई प्रस्थितियों तथा भूमिकाओं की विशिष्ट क्रमबद्धता के लिए किया जाता है।"














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